Ramcharitmanas AranyaKand

अरण्यकाण्ड

श्री गणेशाय नमः

श्री रामचरितमानस

तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड)

श्लोक
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम ।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम ॥ १ ॥

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥

सो॰
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति ।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥१॥

चौ॰-पुर नर भरत प्रीति मैं गाई ।मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन ।करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥१॥
एक बार चुनि कुसुम सुहाए ।निज कर भूषन राम बनाए ॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥२॥
सुरपति सुत धरि बायस बेषा ।सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा ।महा मंदमति पावन चाहा ॥३॥
सीता चरन चौंच हति भागा ।मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥
चला रुधिर रघुनायक जाना ।सींक धनुष सायक संधाना ॥४॥

दो॰ अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥

च॰-प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।चला भाजि बायस भय पावा ॥
धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं ।राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥१॥
भा निरास उपजी मन त्रासा ।जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका ।फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥२॥
काहूँ बैठन कहा न ओही ।राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना ।सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥३॥
मित्र करइ सत रिपु कै करनी ।ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता ।जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥४॥
नारद देखा बिकल जयंता ।लागि दया कोमल चित संता ॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही ।कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥५॥
आतुर सभय गहेसि पद जाई ।त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई ।मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥६॥
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ ।अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी ।एकनयन करि तजा भवानी ॥७॥

सो॰ कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥

च॰- रघुपति चित्रकूट बसि नाना । चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना । होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥१॥
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई । सीता सहित चले द्वौ भाई ॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ । सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥२॥
पुलकित गात अत्रि उठि धाए । देखि रामु आतुर चलि आए ॥
करत दंडवत मुनि उर लाए । प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥३॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने । सादर निज आश्रम तब आने ॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए । दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥४॥

सो॰ प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥

छं॰ नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥
पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥
व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥

दो॰ बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि ।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥

चौ॰-अनुसुइया के पद गहि सीता । मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ निकट बैठाई ॥१॥
दिब्य बसन भूषन पहिराए । जे नित नूतन अमल सुहाए ॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी । नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥२॥
मातु पिता भ्राता हितकारी । मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥
अमित दानि भर्ता बयदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥३॥
धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परिखिअहिं चारी ॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥४॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥५॥
जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं । बेद पुरान संत सब कहहिं ॥
उत्तम के अस बस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥६॥
मध्यम परपति देखइ कैसें । भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥७॥
बिनु अवसर भय तें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति बंचक परपति रति करई । रौरव नरक कल्प सत परई ॥८॥
छन सुख लागि जनम सत कोटि । दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई । पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥९॥
पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई । बिधवा होई पाई तरुनाई ॥१०॥

सो॰ सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ ५क ॥

सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि ।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ ५ख ॥

च॰-सुनि जानकीं परम सुखु पावा । सादर तासु चरन सिरु नावा ॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना । आयसु होइ जाउँ बन आना ॥१॥
संतत मो पर कृपा करेहू । सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी । सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥२॥
जासु कृपा अज सिव सनकादी । चहत सकल परमारथ बादी ॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे । दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥३॥
अब जानी मैं श्री चतुराई । भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई । ता कर सील कस न अस होई ॥४॥
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी । कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा । लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥५॥

छं॰ तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए ।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।
रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥

दो॰ कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।
सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ ६(क) ॥

सो॰ कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥

च॰- मुनि पद कमल नाइ करि सीसा । चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥
आगे राम अनुज पुनि पाछें । मुनि बर बेष बने अति काछें ॥१॥
उमय बीच श्री सोहइ कैसी । ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा । पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥२॥
जहँ जहँ जाहि देव रघुराया । करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥
मिला असुर बिराध मग जाता । आवतहीं रघुवीर निपाता ॥३॥
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा । देखि दुखी निज धाम पठावा ॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा । सुंदर अनुज जानकी संगा ॥४॥

दो॰ देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग ।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥

च॰- कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला । संकर मानस राजमराला ॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा । सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥१॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती । अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥
नाथ सकल साधन मैं हीना । कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥२॥
सो कछु देव न मोहि निहोरा । निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी । जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥३॥
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा । प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा । बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥४॥

दो॰ सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥

च॰-अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥१॥
रिषि निकाय मुनिबर गति देखि । सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा । जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥२॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे । मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥
अस्थि समूह देखि रघुराया । पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥३॥
जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी । सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए । सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥४॥

दो॰ निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥

च॰-मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना । नाम सुतीछन रति भगवाना ॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक । सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥१॥
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा । करत मनोरथ आतुर धावा ॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया । मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥२॥
सहित अनुज मोहि राम गोसाई । मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं । भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥३॥
नहिं सतसंग जोग जप जागा । नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥
एक बानि करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥४॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन । देखि बदन पंकज भव मोचन ॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥५॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई । कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥६॥
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई । प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा । प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥७॥
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा । पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए । देखि दसा निज जन मन भाए ॥८॥
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा । जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥
भूप रूप तब राम दुरावा । हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥९॥
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें । बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥
आगें देखि राम तन स्यामा । सीता अनुज सहित सुख धामा ॥१०॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी । प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई । परम प्रीति राखे उर लाई ॥११॥
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला । कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा । मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥१२॥

दो॰ तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार ।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥

च॰-कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी । अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी । रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥१॥
श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥२॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥३॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥४॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥५॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥६॥
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥७॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥८॥
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी । सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी । बसतु मनसि मम काननचारी ॥९॥
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी । सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥
जो कोसल पति राजिव नयना । करउ सो राम हृदय मम अयना ।१०॥
अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए । बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥११॥
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही । जो बर मागहु देउ सो तोही ॥
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा । समुझि न परइ झूठ का साचा ॥१२॥
तुम्हहि नीक लागै रघुराई । सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना । होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥१३॥
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा । अब सो देहु मोहि जो भावा ॥१४॥

दो॰ अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम ।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥

चौ॰-एवमस्तु करि रमानिवासा । हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥
बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ । भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥१॥
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं । तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई । लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥२॥
पंथ कहत निज भगति अनूपा । मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ । करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥३॥
नाथ कौसलाधीस कुमारा । आए मिलन जगत आधारा ॥
राम अनुज समेत बैदेही । निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥४॥
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए । हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई । रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥५॥
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी । आसन बर बैठारे आनी ॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा । मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥६॥
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा । हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥७॥

दो॰ मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर ।
सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥

चौ॰- तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं । तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ । ताते तात न कहि समुझायउँ ॥१॥
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही । जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥
मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी । पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥२॥
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी । जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया । फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥३॥
जीव चराचर जंतु समाना । भीतर बसहि न जानहिं आना ॥
ते फल भच्छक कठिन कराला । तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥४॥
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं । पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता । बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥५॥
अबिरल भगति बिरति सतसंगा । चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता । अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥६॥
अस तव रूप बखानउँ जानउँ । फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥
संतत दासन्ह देहु बड़ाई । तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥७॥
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ । पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू । उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥८॥
बास करहु तहँ रघुकुल राया । कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥
चले राम मुनि आयसु पाई । तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥९॥

दो॰ गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥

चौ॰-जब ते राम कीन्ह तहँ बासा । सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए । दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥१॥
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं । मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा । जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥२॥
एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छलहीना ॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं । मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥३॥
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा । सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया । कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥४॥

दो॰ ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥

चौ॰-थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥१॥
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ । बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥२॥
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें । प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥३॥
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं । देख ब्रह्म समान सब माही ॥
कहिअ तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥४॥

दो॰ माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥

चौ॰- धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ॥१॥
सो सुतंत्र अवलंब न आना । तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥
भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥२॥
भगति कि साधन कहउँ बखानी । सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥३॥
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा । तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं । मम लीला रति अति मन माहीं ॥४॥
संत चरन पंकज अति प्रेमा । मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा । सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥५॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा । गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥
काम आदि मद दंभ न जाकें । तात निरंतर बस मैं ताकें ॥६॥

दो॰ बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥

चौ॰- भगति जोग सुनि अति सुख पावा । लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती । कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥१॥
सूपनखा रावन कै बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥
पंचबटी सो गइ एक बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥२॥
भ्राता पिता पुत्र उरगारी । पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी । जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥३॥
रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई । बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी । यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥४॥
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं । देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥
ताते अब लगि रहिउँ कुमारी । मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥५॥
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता । अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी । प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥६॥
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा । पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा । जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥७॥
सेवक सुख चह मान भिखारी । ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥
लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥८॥
पुनि फिरि राम निकट सो आई । प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई । जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥९॥
तब खिसिआनि राम पहिं गई । रूप भयंकर प्रगटत भई ॥
सीतहि सभय देखि रघुराई । कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥१०॥

दो॰ लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥

चौ॰- नाक कान बिनु भइ बिकरारा । जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता । धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥१॥
तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई । जातुधान सुनि सेन बनाई ॥
धाए निसिचर निकर बरूथा । जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥२॥
नाना बाहन नानाकारा । नानायुध धर घोर अपारा ॥
सुपनखा आगें करि लीनी । असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥३॥
असगुन अमित होहिं भयकारी । गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥
गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं । देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥४॥
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई । धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा । राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥५॥
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर । आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी । चले सहित श्री सर धनु पानी ॥६॥
देखि राम रिपुदल चलि आवा । बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥७॥

छं॰ कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥

सो॰ आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥

चौ॰-प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी । थकित भई रजनीचर धारी ॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥१॥
नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हते हम केते ॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई । देखी नहिं असि सुंदरताई ॥२॥
जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥
देहु तुरत निज नारि दुराई । जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥३॥
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु । तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई । सुनत राम बोले मुसकाई ॥४॥
हम छत्री मृगया बन करहीं । तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सन लरहीं ॥५॥
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक । मुनि पालक खल सालक बालक ॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू । समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥६॥
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई ॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ । सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥७॥

छं॰ उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥

दो॰ सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥

छं॰ तब चले जान बबान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥
कोपेउ समर श्रीराम । चले बिसिख निसित निकाम ॥
अवलोकि खरतर तीर । मुरि चले निसिचर बीर ॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ । जो भागि रन ते जाइ ॥
तेहि बधब हम निज पानि । फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥
आयुध अनेक प्रकार । सनमुख ते करहिं प्रहार ॥
रिपु परम कोपे जानि । प्रभु धनुष सर संधानि ॥
छाँड़े बिपुल नाराच । लगे कटन बिकट पिसाच ॥
उर सीस भुज कर चरन । जहँ तहँ लगे महि परन ॥
चिक्करत लागत बान । धर परत कुधर समान ॥
भट कटत तन सत खंड । पुनि उठत करि पाषंड ॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड । बिनु मौलि धावत रुंड ॥
खग कंक काक सृगाल । कटकटहिं कठिन कराल ॥

छं॰ कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥
सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।
करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर यो ।
देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर यो ॥

दो॰ राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥

चौ॰- जब रघुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥
तब लछिमन सीतहि लै आए । प्रभु पद परत हरषि उर लाए ॥१॥
सीता चितव स्याम मृदु गाता । परम प्रेम लोचन न अघाता ॥
पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक । करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥२॥
धुआँ देखि खरदूषन केरा । जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥
बोलि बचन क्रोध करि भारी । देस कोस कै सुरति बिसारी ॥३॥
करसि पान सोवसि दिनु राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥४॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ । श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥
संग ते जती कुमंत्र ते राजा । मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥५॥
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी । नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥६॥

सो॰ रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि ।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ २१(क) ॥

दो॰ सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ ॥ २१(ख) ॥

चौ॰- सुनत सभासद उठे अकुलाई । समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥
कह लंकेस कहसि निज बाता । केँइँ तव नासा कान निपाता ॥१॥
अवध नृपति दसरथ के जाए । पुरुष सिंघ बन खेलन आए ॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी । रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥२॥
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन । अभय भए बिचरत मुनि कानन ॥
देखत बालक काल समाना । परम धीर धन्वी गुन नाना ॥३॥
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता । खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥
सोभाधाम राम अस नामा । तिन्ह के संग नारि एक स्यामा ॥४॥
रुप रासि बिधि नारि सँवारी । रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा । सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥५॥
खर दूषन सुनि लगे पुकारा । छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता । सुनि दससीस जरे सब गाता ॥६॥

दो॰ सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति ।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति ॥ २२ ॥

चौ॰- सुर नर असुर नाग खग माहीं । मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता । तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ॥१॥
सुर रंजन भंजन महि भारा । जौं भगवंत लीन्ह अवतारा ॥
तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ । प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ॥२॥
होइहि भजनु न तामस देहा । मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥
जौं नररुप भूपसुत कोऊ । हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥३॥
चला अकेल जान चढि तहवाँ । बस मारीच सिंधु तट जहवाँ ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई । सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥४॥

दो॰ लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद ।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद ॥ २३ ॥

चौ॰- सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला । मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा । जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥१॥
जबहिं राम सब कहा बखानी । प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता । तैसइ सील रुप सुबिनीता ॥२॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना । जो कछु चरित रचा भगवाना ॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा । नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥३॥
नवनि नीच कै अति दुखदाई । जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥४॥

दो॰ करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात ।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ २४ ॥

चौ॰-दसमुख सकल कथा तेहि आगें । कही सहित अभिमान अभागें ॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी । जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥१॥
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा । ते नररुप चराचर ईसा ॥
तासों तात बयरु नहिं कीजे । मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥२॥
मुनि मख राखन गयउ कुमारा । बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं । तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं ॥३॥
भइ मम कीट भृंग की नाई । जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई ॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा । तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥४॥

दो॰ जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड ॥
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड ॥ २५ ॥

चौ॰-जाहु भवन कुल कुसल बिचारी । सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा । कहु जग मोहि समान को जोधा ॥१॥
तब मारीच हृदयँ अनुमाना । नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी । बैद बंदि कबि भानस गुनी ॥२॥
उभय भाँति देखा निज मरना । तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें । कस न मरौं रघुपति सर लागें ॥३॥
अस जियँ जानि दसानन संगा । चला राम पद प्रेम अभंगा ॥
मन अति हरष जनाव न तेही । आजु देखिहउँ परम सनेही ॥४॥

छं॰ निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं ।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं ॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी ।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥

दो॰ मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान ।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन ॥ २६ ॥

चौ॰-तेहि बन निकट दसानन गयऊ । तब मारीच कपटमृग भयऊ ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई । कनक देह मनि रचित बनाई ॥१॥
सीता परम रुचिर मृग देखा । अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला । एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥२॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही । आनहु चर्म कहति बैदेही ॥
तब रघुपति जानत सब कारन । उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥३॥
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा । करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥
प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई । फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥४॥
सीता केरि करेहु रखवारी । बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी । धाए रामु सरासन साजी ॥५॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा । मायामृग पाछें सो धावा ॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई । कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई ॥६॥
प्रगटत दुरत करत छल भूरी । एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी ॥
तब तकि राम कठिन सर मारा । धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥७॥
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा । पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा । सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥८॥
अंतर प्रेम तासु पहिचाना । मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥९॥

दो॰ बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ ॥ २७ ॥

चौ॰-खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा । सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥
आरत गिरा सुनी जब सीता । कह लछिमन सन परम सभीता ॥१॥
जाहु बेगि संकट अति भ्राता । लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई । सपनेहुँ संकट परइ कि सोई ॥२॥
मरम बचन जब सीता बोला । हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू । चले जहाँ रावन ससि राहू ॥३॥
सून बीच दसकंधर देखा । आवा निकट जती कें बेषा ॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं । निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं ॥४॥
सो दससीस स्वान की नाई । इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा । रह न तेज बुधि बल लेसा ॥५॥
नाना बिधि करि कथा सुहाई । राजनीति भय प्रीति देखाई ॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं । बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥६॥
तब रावन निज रूप देखावा । भई सभय जब नाम सुनावा ॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा । आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा ॥७॥
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा । भएसि कालबस निसिचर नाहा ॥
सुनत बचन दससीस रिसाना । मन महुँ चरन बंदि सुख माना ॥८॥

दो॰ क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥

चौ॰- हा जग एक बीर रघुराया । केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥
आरति हरन सरन सुखदायक । हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥१॥
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा । सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा ॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही । भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥२॥
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा । पुरोडास चह रासभ खावा ॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी । भए चराचर जीव दुखारी ॥३॥
गीधराज सुनि आरत बानी । रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥
अधम निसाचर लीन्हे जाई । जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥४॥
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा । करिहउँ जातुधान कर नासा ॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें । छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥५॥
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही । निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥
आवत देखि कृतांत समाना । फिरि दसकंधर कर अनुमाना ॥६॥
की मैनाक कि खगपति होई । मम बल जान सहित पति सोई ॥
जाना जरठ जटायू एहा । मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ॥७॥
सुनत गीध क्रोधातुर धावा । कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू । नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥८॥
राम रोष पावक अति घोरा । होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥
उतरु न देत दसानन जोधा । तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥९॥
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा । सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही । दंड एक भइ मुरुछा तेही ॥१०॥
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना । काढ़ेसि परम कराल कृपाना ॥
काटेसि पंख परा खग धरनी । सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥११॥
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी । चला उताइल त्रास न थोरी ॥
करति बिलाप जाति नभ सीता । ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥१२॥
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी । कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ । बन असोक महँ राखत भयऊ ॥१३॥

दो॰ हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ २९(क) ॥

नवान्हपारायण, छठा विश्राम

दो॰- जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम ।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ २९(ख) ॥

चौ॰-रघुपति अनुजहि आवत देखी । बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली । आयहु तात बचन मम पेली ॥१॥
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं । मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी । कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥२॥
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ । गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥
आश्रम देखि जानकी हीना । भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥३॥
हा गुन खानि जानकी सीता । रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥
लछिमन समुझाए बहु भाँती । पूछत चले लता तरु पाँती ॥४॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥५॥
कुंद कली दाड़िम दामिनी । कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा । गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥६॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं । नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू । हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥७॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥
एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी । मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥८॥
पूरनकाम राम सुख रासी । मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥
आगे परा गीधपति देखा । सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥९॥

दो॰ कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥

चौ॰-तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही । तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥१॥
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई । बिलपति अति कुररी की नाई ॥
दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना । चलन चहत अब कृपानिधाना ॥२॥
राम कहा तनु राखहु ताता । मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥
जा कर नाम मरत मुख आवा । अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥३॥
सो मम लोचन गोचर आगें । राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥
जल भरि नयन कहहिँ रघुराई । तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥४॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीँ । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा । देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥५॥

दो॰ सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥
जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥

चौ॰-गीध देह तजि धरि हरि रुपा । भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी । अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥

छं॰ जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही ।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं ।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं ।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं ।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥२॥
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई ।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा ।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी ।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥

दो॰ अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम ।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥

चौ॰-कोमल चित अति दीनदयाला । कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥
गीध अधम खग आमिष भोगी । गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥१॥
१सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई । चले बिलोकत बन बहुताई ॥२॥
संकुल लता बिटप घन कानन । बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥
आवत पंथ कबंध निपाता । तेहिं सब कही साप कै बाता ॥३॥
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा । प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही । मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥४॥

दो॰ मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव ।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥

चौ॰-सापत ताड़त परुष कहंता । बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना । सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥१॥
कहि निज धर्म ताहि समुझावा । निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई । गयउ गगन आपनि गति पाई ॥२॥
ताहि देइ गति राम उदारा । सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥
सबरी देखि राम गृहँ आए । मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥३॥
सरसिज लोचन बाहु बिसाला । जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई । सबरी परी चरन लपटाई ॥४॥
प्रेम मगन मुख बचन न आवा । पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥
सादर जल लै चरन पखारे । पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥५॥

दो॰ कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि ।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥

चौ॰- पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी । प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी । अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥१॥
अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ॥२॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥३॥
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥४॥

दो॰ गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥

चौ॰-मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥१॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥२॥
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ॥३॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई । तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥४॥
मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी । जानहि कहु करिबरगामिनी ॥५॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई । तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा । जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥६॥
बार बार प्रभु पद सिरु नाई । प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥७॥

छं॰ कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥

दो॰ जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि ।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥

चौ॰- चले राम त्यागा बन सोऊ । अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा । कहत कथा अनेक संबादा ॥१॥
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा । देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥
नारि सहित सब खग मृग बृंदा । मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥२॥
हमहि देखि मृग निकर पराहीं । मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए । कंचन मृग खोजन ए आए ॥३॥
संग लाइ करिनीं करि लेहीं । मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ । भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥४॥
राखिअ नारि जदपि उर माहीं । जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥
देखहु तात बसंत सुहावा । प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥५॥

दो॰ बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल ।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥

देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात ।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥

चौ॰- बिटप बिसाल लता अरुझानी । बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥
कदलि ताल बर धुजा पताका । दैखि न मोह धीर मन जाका ॥१॥
बिबिध भाँति फूले तरु नाना । जनु बानैत बने बहु बाना ॥
कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए । जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥२॥
कूजत पिक मानहुँ गज माते । ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥
मोर चकोर कीर बर बाजी । पारावत मराल सब ताजी ॥३॥
तीतिर लावक पदचर जूथा । बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥
रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना । चातक बंदी गुन गन बरना ॥४॥
मधुकर मुखर भेरि सहनाई । त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें । बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥५॥
लछिमन देखत काम अनीका । रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥
एहि कें एक परम बल नारी । तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥६॥

दो॰ तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि ।
क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥

चौ॰- गुनातीत सचराचर स्वामी । राम उमा सब अंतरजामी ॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई । धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥१॥
क्रोध मनोज लोभ मद माया । छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला । जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥२॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा । पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥३॥
संत हृदय जस निर्मल बारी । बाँधे घाट मनोहर चारी ॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा । जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥४॥

दो॰ पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म ।
मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥

सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं ।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥

चौ॰-बिकसे सरसिज नाना रंगा । मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा । प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥१॥
चक्रवाक बक खग समुदाई । देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥
सुन्दर खग गन गिरा सुहाई । जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥२॥
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए । चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥
चंपक बकुल कदंब तमाला । पाटल पनस परास रसाला ॥३॥
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना । चंचरीक पटली कर गाना ॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ । संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥४॥
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं । सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥५॥

दो॰ फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥

चौ॰- देखि राम अति रुचिर तलावा । मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥
देखी सुंदर तरुबर छाया । बैठे अनुज सहित रघुराया ॥१॥
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए । अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला । कहत अनुज सन कथा रसाला ॥२॥
बिरहवंत भगवंतहि देखी । नारद मन भा सोच बिसेषी ॥
मोर साप करि अंगीकारा । सहत राम नाना दुख भारा ॥३॥
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई । पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥
यह बिचारि नारद कर बीना । गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥४॥
गावत राम चरित मृदु बानी । प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥
करत दंडवत लिए उठाई । राखे बहुत बार उर लाई ॥५॥
स्वागत पूँछि निकट बैठारे । लछिमन सादर चरन पखारे ॥६॥

दो॰ नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि ।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥

चौ॰- सुनहु उदार सहज रघुनायक । सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी । जद्यपि जानत अंतरजामी ॥१॥
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ । जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी । जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥२॥
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें । अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥३॥
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका । श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका । होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥४॥

दो॰ राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम ।
अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥

चौ॰- अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी । पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया । मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥१॥
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा । प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥२॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी । जिमि बालक राखइ महतारी ॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई । तहँ राखइ जननी अरगाई ॥३॥
प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता । प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी । बालक सुत सम दास अमानी ॥४॥
जनहि मोर बल निज बल ताही । दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं । पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥५॥

दो॰ काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि ।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥

चौ॰- सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता । मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी । होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥१॥
काम क्रोध मद मत्सर भेका । इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई । तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥२॥
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा । होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥
पुनि ममता जवास बहुताई । पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥३॥
पाप उलूक निकर सुखकारी । नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥५॥

दो॰ अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि ।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥

चौ॰-सुनि रघुपति के बचन सुहाए । मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती । सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥१॥
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी । ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद । सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥२॥
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा । कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ । जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥३॥
षट बिकार जित अनघ अकामा । अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥
अमितबोध अनीह मितभोगी । सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥४॥
सावधान मानद मदहीना । धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥५॥

दो॰ गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥

चौ॰-निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं । पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती । सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥१॥
जप तप ब्रत दम संजम नेमा । गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया । मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥२॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । बोध जथारथ बेद पुराना ॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ । भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥३॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला । हेतु रहित परहित रत सीला ॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते । कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥४॥

छं॰ कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे ।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥
सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥

दो॰ रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग ।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग ।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥४६(ख) ॥

मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम

इति तृतीयः सोपानः समाप्तः.

(अरण्यकाण्ड समाप्त)